मंगलवार, 5 मई 2020

चुप्पियाँ- 1 और 2


🌷📚

पुनर्पाठ-

*चुप्पियाँ*

दस घंटे, चुप्पी और एक लघु कविता संग्रह का जन्म-
घटना 2018 की जन्माष्टमी की है। उस दिन मैंने लिखा,
"जन्माष्टमी का मंगल पर्व और माँ शारदा की अनुकंपा का दुग्ध-शर्करा योग आज जीवन में उतरा। कल रात लगभग 9 बजे 'चुप्पी' पर एक कविता ने जन्म लिया। फिर देर रात तक इसी विषय पर कुछ और कविताएँ भी जन्मीं। सुबह जगा तो इसी विषय की कविताओं के साथ। दोपहर तक कविताएँ निरंतर दस्तक देती रहीं, कागज़ पर जगह बनाती रहीं। रात के लगभग अढ़ाई घंटे और आज के सात, कुल जमा दस घंटे कह लीजिए सृजन के। इन दस घंटों में 'चुप्पी' पर चौंतीस कविताएँ अवतरित हुईं। इससे पहले भी अनेक बार कई कविताओं की एक साथ आमद होती रही है। एक ही विषय पर अनेक कविताएँ एक साथ भी आती रही हैं। अलबत्ता एक विषय पर एक साथ इतनी कविताएँ पहली बार जन्मीं। एक लघु कविता संग्रह ही तैयार हो गया। ज्ञानदेवी माँ सरस्वती और सर्वकलाओं के अधिष्ठाता योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्रति नतमस्तक हूँ।"
'चुप्पियाँ' क्षितिज प्रकाशन के पास प्रकाशनार्थ है। लॉकडाउन खुलने के बाद संग्रह आएगा।
आज से प्रतिदिन इस विषय पर दो रचनाएँ साझा करूँगा।  समय निकाल कर  पढ़िए इन रचनाओं को और अपनी राय अवश्य दीजिए। 🙏🏻

*चुप्पियाँ-1*
वे निरंतर
कोंच रहे हैं मुझे,
......लिखो!
मैं चुप हो गया हूँ..,
अपनी सुविधा
में ढालकर,
मेरे लेखन की
शक्ल देकर,
अब बाज़ार में
चस्पा की जा रही है
मेरी चुप्पी..,
बाज़ार में मची धूम पर
क्या कहूँ दोस्तो,
मैं सचमुच चुप हूँ!

(1.9.18, रात 8.59 बजे)

*चुप्पियाँ -2*
मेरे भीतर जम रही हैं
चुप्पी की परतें,
मेरे भीतर बन रही है
एक मोटी-सी चादर,
मैं मुटा रहा हूँ...,
आलोचक इसे
खाल का मोटा होना
कह सकते हैं..,
कुछ अवसरसाधु
इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं,
मैं चुप हूँ, डरता हूँ
कहीं पिघल न जाए चुप्पी
इसके लावे की जद में
आ न जाएँ सारे आलोचक,
सारे अवसरसाधु,
विनाश की कीमत पर
सृजन नहीं चाहता मैं!
संजय भारद्वाज
(1.9.18, रात 9:56 बजे)

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।
🙏🏻✍️

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