शनिवार, 30 मई 2020

चुप्पियाँ-11


📚

*चुप्पियाँ-11*

चुप्पी, निरंतर

सिरजती है विचार,

'दूधो नहाओ,

पूतो फलो'

का आशीर्वाद

चुप्पी को

फलीभूत हुआ है!

( 8:11 बजे, 2.9.18)
( कवितासंग्रह *चुप्पियाँ* से)

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com
9890122603

# दो गज़ की दूरी
   बहुत है.ज़रूरी।

✍️🙏🏻

शुक्रवार, 29 मई 2020

निठल्ला चिंतन


🌻📚
अहं ब्रह्मास्मि।...सुनकर अच्छा लगता है न!...मैं ब्रह्म हूँ।....ब्रह्म मुझमें ही अंतर्भूत है।

ब्रह्म सब देखता है, ब्रह्म सब जानता है।

अपने आचरण को देख रहे हो न!

...अपने आचरण को जान रहे हो न!

बस इतना ही कहना था।

थोड़े लिखे को अधिक बाँचना, सर्वाधिक आत्मसात करना।

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

28.5.2020, प्रात: 10 बजे

*# निठल्ला चिंतन*

🙏🏻✍️🙏🏻

बुधवार, 27 मई 2020

कहानी (लघुकथा)


कहानी

'यह दुनिया की सबसे लम्बी कहानी है। इसे गिनीज बुक में दर्ज़ किया गया है,.' जानकारी दी जा रही थी।

वह सोचने लगा कि पहली श्वास से पूर्णविराम की श्वास तक हर मनुष्य का जीवन एक अखंड कहानी है। असंख्य जीव, अनंत कहानियाँ..। हर कहानी की लम्बाई इतनी अधिक कि नापने के लिए पैमाना ही छोटा पड़ जाए।...फिर भला कोई कहानी दुनिया की सबसे लम्बी कहानी कैसे हो सकती है..?

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(प्रातः 6:30 बजे, 26.5.2019)

इस कहानीकार का हर कहानीकार को नमस्कार।

विचारणीय


विचारणीय

मैं हूँ
मेरा चित्र है;
थोड़ी प्रशंसाएँ हैं
परोक्ष, प्रत्यक्ष
भरपूर आलोचनाएँ हैं,
मैं नहीं हूँ
मेरा चित्र है;
सीमित आशंकाएँ
समुचित संभावनाएँ हैं,
मन के भावों में
अंतर कौन पैदा करता है-
मनुष्य का होना या
मनुष्य का चित्र हो जाना...?
प्रश्न विचारणीय
तो है मित्रो!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(शुक्रवार, 11 मई 2018, रात्रि 11:52 बजे)

मंगलवार, 26 मई 2020

चुप्पियाँ-10


📚🍁
*चुप्पियाँ- 10*

.......पूर्ण से
पूर्ण चले जाने पर भी
पूर्ण ही शेष रहता है,
चैनलों पर सुनता हूँ
प्रायोजित प्रवचन
चुप हो जाता हूँ..,
सारी चुप्पियाँ
समाप्त होने के बाद भी
बची रहती है चुप्पी,
पूर्णमिदं......
........पूर्णमेवावशिष्यते!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

(प्रातः 7:49 बजे, 2.9.18)
🙏🏻✍️

रविवार, 24 मई 2020

अंतर्प्रवाह


*अंतर्प्रवाह*📚

हलाहल निरखता हूँ
अचर हो जाता हूँ,
अमृत देखता हूँ
प्रवाह बन जाता हूँ,
जगत में विचरती देह
देह की असीम अभीप्सा,
जीवन-मरण, भय-मोह से
मुक्त जिज्ञासु अनिच्छा,
दृश्य और अदृश्य का
विपरीतगामी अंतर्प्रवाह हूँ,
स्थूल और सूक्ष्म के बीच
सोचता हूँ मैं कहाँ हूँ..!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com
9890122603

(रात्रि 3: 33,  23.3.2020)

# दो ग़ज़ की दूरी
    है बहुत ज़रूरी।
🙏🏻✍️

शनिवार, 23 मई 2020

चुप्पियाँ -9


🌷📚

*चुप्पियाँ- 9*

मेरी चुप्पी का
जवाब पूछने
आया था वह,
मेरी चुप्पी का
एन्सायक्लोपीडिया
देखकर
चुप हो गया वह!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

( प्रात: 9:45, 2.9.2018)
(कवितासंग्रह *चुप्पियाँ* से)

# दो गज़ की दूरी,
    है बहुत ज़रूरी।
🙏🏻✍️

विनिमय


विनिमय

...जानते हैं, कैसा  समय था उन दिनों! राजा-महाराजा किसी साम्राज्य से संधि करने या लाभ उठाने के लिए अपने कुल की कन्याओं का विवाह शत्रु राजा से कर दिया करते थे।  आदान-प्रदान की आड़ में हमेशा सौदे हुए।

...अत्यंत निंदनीय। मैं तो सदा कहता आया हूँ कि हमारा अतीत वीभत्स था। इस प्रकार का विनिमय मनुष्यता के नाम पर धब्बा है, पूर्णत: अनैतिक है।
पहले ने दूसरे की हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ-वहाँ से होकर बात विषय पर आई।

...अच्छा, उस पुरस्कार का क्या हुआ?

...हो जाएगा। आप अपने राज्य में हमारा ध्यान रख लीजिएगा, हमारे राज्य में हम आपका ध्यान रखेंगे।

विषय पूरा हो चुका था। उपसंहार के लिए वर्तमान, अतीत की आलोचनाओं में जुटा था।  भविष्य गढ़ा जा रहा था।

संजय भारद्वाज

प्रात: 7:17 बजे, 18.5.2020

बुधवार, 20 मई 2020


विभाजन

लहरों को जन्म देता है प्रवाह
सृजन का आनंद मनाता है,
उछाल के विस्तार पर झूमता है
काल का पहिया घूमता है,
विकसित लहरें बाँट लेती हैं
अपने-अपने हिस्से का प्रवाह,
शिथिल तन और
खंडित मन लिए प्रवाह
अपनी ही लहरों को
विभक्त नहीं कर पाता है,
सुनो मनुज!
मर्त्यलोक में माता-पिता
और संतानों का
कुछ ऐसा ही नाता है!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

( 8.35 बजे, 18 मई 2019)

मंगलवार, 19 मई 2020

मालामाल


मालामाल

ऐसी ऊँची भाषा  लिखकर तो हमेशा कंगाल ही रहोगे। ...सुनो लेखक, मालामाल कर दूँगा, बस मेरी शर्तों पर लिखो।

लेखक ने भाषा को मालामाल कर दिया जब उसने 'शर्त' का विलोम शब्द 'लेखन' रचा।

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

रात्रि 12:47 बजे, 19.5.2020

# दो गज की दूरी, है बहुत ज़रूरी।

सोमवार, 18 मई 2020

चुप्पियाँ- 8


📚🍂

*चुप्पियाँ-8*

क्या आजीवन
बनी रहेगी
तुम्हारी चुप्पी?
प्रश्न की
संकीर्णता पर
मैं हँस पड़ा,
चुप्पी तो
मृत्यु के बाद भी
मेरे साथ ही रहेगी!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

(प्रातः 9:01 बजे, 2.9.18)

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।
🙏🏻✍️

रविवार, 17 मई 2020

चुप्पियाँ-7

...चुप रहो,

...क्यों?

देर तक

तुम्हारी चुप्पी

सुनना चाहता हूँ!

(प्रातः 6:52 बजे, 2.9.18)

संजय भारद्वाज

निठल्ला चिंतन


निठल्ला चिंतन

जो धान बोता है, उसके खेत में धान लहलहाता है। गेहूँ बोने वाला, गेहूँ की फसल पाता है। जिसने चना रोपा, उसने चना काटा। आम उगाने वाला आम का स्वामी हुआ। दीक्षा, जीवन को सरलता और सहजता प्रदान करती है। सरल और सहज के घर आनंद वास करता है।
शिक्षित ईर्ष्या बोता है, सम्मान काटना चाहता है। षड्यंत्र रोपता है, यश उगा देखने की इच्छा करता है। पैसा, पद, जुगाड़ से बनी अपनी अस्थायी स्थिति से स्थायी लाभ लेना चाहता है। बीज के तत्व और कोख में होनेवाली प्रक्रिया परिवर्तित करने की विफल कुचेष्टा, कुंठा और अवसाद को घर करने देती है।

सुना है कि सरकार बच्चों के ऑनलाइन अध्ययन अभियान का नामकरण 'दीक्षा' करने जा रही है। ..हे ईश्वर! भविष्य में शिक्षित, दीक्षित भी हों!

*संजय भारद्वाज*
प्रात: 6:03 बजे, 18.5.2020

# दो गज की दूरी, है बहुत ज़रूरी।
🙏🏻✍️

शुक्रवार, 15 मई 2020

सीढ़ियाँ लघुकथा


🍁🌿🍁

दो दिन पूर्व 'सीढ़ियाँ' शीर्षक से अपनी एक कविता साझा की थी। पुनर्पाठ में आज पढ़िए इसी शीर्षक की एक लघुकथा।

*सीढ़ियाँ-*

"ये सीढ़ियाँ जादुई हैं पर खड़ी, सपाट, ऊँची, अनेक जगह ख़तरनाक ढंग से टूटी-फूटी हैं। इन पर चढ़ना आसान नहीं है। कुल जमा सौ के लगभग हैं। सारी सीढ़ियों का तो पता नहीं पर प्राचीन ग्रंथों, साधना और अब तक के अनुसंधानों से पता चला है कि 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच एक दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा एक गलियारे में खुलता है जो धन-संपदा से भरा है। इसे ठेलकर भीतर जानेवाले की कई पीढ़ियाँ अकूत संपदा की स्वामी बनी रहती हैं।

20वीं से  35वीं सीढ़ी के बीच कोई दरवाज़ा है जो सत्ता के गलियारे में खुलता है। इसे खोलनेवाला सत्ता काबिज़ करता है और टिकाए रखता है।
साधना के परिणाम बताते हैं कि 35वीं से 50वीं सीढ़ी के बीच भी एक दरवाज़ा है जो मान- सम्मान के गलियारे में पहुँचाता है। यहाँ आने के लिए त्याग, कर्मनिष्ठा और कठोर परिश्रम अनिवार्य हैं। यदा-कदा कोई बिरला ही पहुँचा है यहाँ तक"..., नियति ने मनुष्यों से अपना संवाद समाप्त किया और सीढ़ियों की ओर बढ़ चली। मनुष्यों में सीढियाँ चढ़ने की होड़ लग गई।

आँकड़े बताते हैं कि 91प्रतिशत मनुष्य 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच भटक रहे हैं। ज़्यादातर दम तोड़ चुके। अलबत्ता कुछ को दरवाज़ा मिल चुका, कुछ का भटकाव जारी है। कुबेर का दरवाज़ा उत्सव मना रहा है।

8 प्रतिशत अधिक महत्वाकांक्षी निकले। वे 20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच अपनी नियति तलाश रहे हैं। दरवाज़े की खोज में वे लोक-लाज, नीति सब तज चुके। सत्ता की दहलीज़ शृंगार कर रही है। शिकार के पहले सत्ता, शृंगार करती है।

1 प्रतिशत लोग 35 से 50 के बीच की सीढ़ियों पर आ पहुँचे हैं। वे उजले लोग हैं। उनके मन का एक हिस्सा उजला है, याने एक हिस्सा स्याह भी है। उजले के साथ इस अपूर्व ऊँचाई पर आकर स्याह गदगद है।

संख्या पूरी हो चुकी। 101वीं सीढ़ी पर सदियों से उपेक्षित पड़े मोक्षद्वार को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी।

*संजय भारद्वाज*

हरेक की  जीवनयात्रा सार्थक हो। कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें।

🙏🏻🙏🏻✍

गुरुवार, 14 मई 2020

अपराजेय


*अपराजेय*

"मैं तुम्हें दिखता हूँ?"
उसने पूछा...,
"नहीं..."
मैंने कहा...,
"फिर तुम
मुझसे लड़ोगे कैसे..?"
"...मेरा हौसला
तुम्हें दिखता है?"
मैंने पूछा...,
"नहीं..."
" फिर तुम
मुझसे बचोगे कैसे..?"
ठोंकता है ताल मनोबल
संकट भागने को
विवश होता है,
शत्रु नहीं
शत्रु का भय
अदृश्य होता है!

संजय भारद्धाज
9890122603writersanjay@gmail.com

प्रात: 11 बजे, 13.5.2020

# कृपया घर में रहें। सुरक्षित रहें।

बुधवार, 13 मई 2020

सीढ़ियाँ


📚💥

*सीढ़ियाँ*

आती-जाती
रहती हैं पीढ़ियाँ
जादुई होती हैं
उम्र की सीढ़ियाँ,
जैसे ही अगली
नज़र आती है
पिछली तपाक से
विलुप्त हो जाती है,
आरोह की सतत
दृश्य संभावना में
अवरोह की अदृश्य
आशंका खो जाती है,
जब फूलने लगे साँस
नीचे अथाह अँधेरा हो
पैर ऊपर उठाने को
बचा न साहस मेरा हो,
चलने-फिरने से भी
देह दूर भागती रहे
पर भूख-प्यास तब भी
बिना लांघा लगाती डेरा हो,
हे आयु के दाता! उससे
पहले प्रयाण करा देना
अगले जन्मों के हिसाब में
बची हुई सीढ़ियाँ चढ़ा देना!
मैं जिया अपनी तरह
मरूँ भी अपनी तरह,
आश्रित कराने से पहले
मुझे विलुप्त करा देना!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com
प्रातः 8:01 बजे, 21.4.19

आपका दिन शुभ हो।

✍️🙏🏻




कोलाहल
निपट पहली
संख्या हो
या असंख्येय
हो चुका हो,
कोलाहल
संख्यारेखा के
बाएँ हो या दायें हो,
हर बार
हर समय
कोलाहल की
परिणति
चुप्पी ही होती है,
चुप्पी शाश्वत है
शेष सब नश्वर!
( 2.9.18, प्रातः 6:59 बजे)


एक पाठ ऐसा भी

📚🍁

*एक पाठ ऐसा भी*


मनुष्य का जीवन घटनाओं का संग्रह है। निरंतर कुछ घट रहा होता है। इस अखंडित घट रहे को हरेक अपने दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। मेरे जीवन में घटी इस सामान्य-सी घटना ने  असामान्य सीख दी। यह सीख आज भी पग-पग पर मेरा मार्गदर्शन कर रही है।

वर्ष 1986 की बात है। बड़े भाई का विवाह निश्चित हो गया था। विवाह जयपुर से करना तय हुआ। जयपुर में हमारा मकान है जो सामान्यत: बंद रहता है। पुणे से वहाँ जाकर पहले छोटी-मोटी टूट-फूट ठीक करानी थी, रंग-रोगन कराना था। पिता जी ने यह मिशन मुझे सौंपा। मिशन पूरा हुआ।

4 दिसम्बर का विवाह था। कड़ाके की ठंड का समय था। हमारे मकान के साथ ही बगीची (मंगल कार्यालय) है। मेहमानों के लिए वहाँ बुकिंग थी पर कुटुम्ब और ननिहाल के सभी  सभी परिजन स्वाभाविक रूप से घर पर ही रुके। मकान काफी बड़ा है, सो जगह की कमी नहीं थी पर इतने रजाई, गद्दे तो घर में हो नहीं सकते थे। अत: लगभग आधा किलोमीटर दूर स्थित सुभाष चौक से मैंने 20 गद्दे, 20 चादरें और 20 रजाइयाँ किराये पर लीं।

उन दिनों सायकलरिक्शा का चलन था। एक सायकलरिक्शा पर सब कुछ लादकर बांध दिया गया। दो फुट ऊँचा रिक्शा, उस पर लदे गद्दे-रजाई, लगभग बारह फीट का पहाड़ खड़ा हो गया। जीवन का अधिक समय पुणे में व्यतीत होने के कारण इतनी ऊँचाई तक सामान बांधना मेरे लिए कुछ असामान्य था।

...पर असली असामान्य तो अभी मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।  रिक्शेवाला सायकल पर सवार हुआ और मेरी ओर देखकर कहा, 'भाईसाब बेठो!" मेरी मंथन चल रहा था कि इतना वज़न यह अकेली जान केसे हाँकेगा! वैसे भी रिक्शा में तो तिल रखने की भी जगह नहीं थी सो मैं रिक्शा के साथ-साथ पैदल चलूँगा। दोबारा आवाज़ आई, "भाईसाब बेठो।" इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से मैं आश्चर्यचकित हो गया। " कहाँ बैठूँ?" मैंने पूछा। "ऊपरली बैठ जाओ", वह ठेठ मारवाड़ी में बोला। फिर उसने बताया कि वह इससे भी ऊँचे सामान पर ग्राहक को बैठाकर दस-दस किलोमीटर गया है। यह तो आधा किलोमीटर है। "भाईसाब डरपो मनि। कोन पड्स्यो। बेठो तो सही।" मैंने उसी वर्ष बी.एस्सी. की थी। उस आयु में कोई चुनौती दे, यह तो मान्य था ही नहीं। एक दृष्टि डाली और उस झूलते महामेरु पर विराजमान हो गया। ऊपर बैठते ही एक बात समझ में आ गई कि चढ़ने के लिए तो मार्ग मिल गया, उतरने के लिए कूदना ही एकमात्र विकल्प है।

रिक्शावाले ने पहला पैडल लगाया और मेरे ज्ञान में इस बात की वृद्धि हुई कि जिस रजाई को पकड़कर मैं बैठा था, उसका अपना आधार ही कच्चा है। अगले पैडल में उस कच्ची रस्सी को थामकर बैठा जिससे सारा जख़ीरा बंधा हुआ था। जल्दी ही आभास हो गया कि यह रस्सी जितनी  दिख रही है, वास्तव में अंदर से है उससे अधिक कच्ची। उधर गड्ढों में सड़क इतने कलात्मक ढंग से धंसी थी कि एक गड्ढे से बचने का मूल्य दूसरे गड्ढे में प्रवेश था।   फलत: हर दूसरे गड्ढे से उपजते झटके से समरस होता मैं अनन्य यात्रा का अद्भुत आनंद अनुभव कर रहा था।

यात्रा में बाधाएँ आती ही हैं। कुछ लोगों का तो जन्म ही बाधाएँ उत्पन्न करने के लिए हुआ होता है। ये वे विघ्नसंतोषी हैं जिनका दृढ़ विश्वास है कि ईश्वर ने मनुष्य को टांग  दूसरों के काम में अड़ाने के लिए ही दी है। सायकलरिक्शा मुख्य सड़क से हमारे मकानवाली गली में मुड़ने ही वाला था कि गली से बिना ब्रेक की सायकल पर सवार एक विघ्नसंतोषी प्रकट हुआ। संभवत: पिछले जन्म में भागते घोड़े से गिरकर सिधारा था। इस जन्म में घोड़े का स्थान सायकल ने ले लिया था। हमें बायीं ओर मुड़ना था। वह गली से निकलकर दायीं ओर मुड़ा और सीधे हमारे सायकलरिक्शा के सामने। अनुभवी रिक्शाचालक के सामने उसे बचाने के लिए एकसाथ दोनों ब्रेक लगाने के सिवा कोई विकल्प नहीं था।

मैंने जड़त्व का नियम पढ़ा था, समझा भी था पर साक्षात अनुभव आज किया। नियम कहता है कि प्रत्येक पिण्ड तब तक अपनी विरामावस्था में  एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। ब्रेक लगते ही मैंने शरीर की गति में परिवर्तन अनुभव किया। बैठी मुद्रा में ही शरीर विद्युत गति से ऊपर से नीचे आ रहा था। कुछ समझ पाता, उससे पहले चमत्कार घट चुका था। मैंने अपने आपको सायकलरिक्शा की सीट पर पाया। सीट पर विराजमान रिक्शाचालक, हैंडल पर औंधे मुँह गिरा था। उसकी देह बीच के डंडे पर झूल रही थी।

सायकलसवार आसन्न संकट की गंभीरता समझकर बिना ब्रेक की गति से ही निकल लिया। मैं उतरकर सड़क पर खड़ा हो गया। यह भी चमत्कार था कि मुझे खरोंच भी नहीं आई थी...पर आज तो चमत्कार जैसे सपरिवार ही आया था। औंधे मुँह गिरा चालक दमखम से खड़ा हुआ। सायकलरिक्शा और लदे सामान का जायज़ा लिया। रस्सियाँ फिर से कसीं। अपनी सीट पर बैठा। फिर ऐसे भाव से कि कुछ घटा ही न हो, उसी ऊँची जगह को इंगित करते हुए मुझसे बोला," बेठो भाईसाब।"

भाईसाहब ने उसकी हिम्मत की मन ही मन दाद दी लेकिन स्पष्ट कर दिया कि आगे की यात्रा में सवारी पैदल ही चलेगी। कुछ समय बाद हम घर के दरवाज़े पर थे। सामान उतारकर किराया चुकाया। चालक विदा हुआ और भीतर विचार की शृंखला चलने लगी।

जिस रजाई पर बैठकर मैं ऊँचाई अनुभव कर रहा था, उसका अपना कोई ठोस आधार नहीं था। जीवन में एक पाठ पढ़ा कि क्षेत्र कोई भी हो, अपना आधार ठोस बनाओ। दिखावटी आधार औंधे मुँह पटकते हैं और जगहँसाई का कारण बनते हैं।

आज जब हर क्षेत्र विशेषकर साहित्य में बिना परिश्रम, बिना कर्म का आधार बनाए, जुगाड़ द्वारा रातोंरात प्रसिद्ध होने या पुरस्कार कूटने की इच्छा रखनेवालों से मिलता हूँ तो यह पाठ बलवत्तर होता जाता है।

अखंडित निष्ठा, संकल्प, साधना का आधार सुदृढ़ रहे तो मनुष्य सदा ऊँचाई पर बना रह सकता है। शव से शिव हो सकता है।

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

संध्या 7:28 बजे, 12.5.2020

# कृपया घर में रहें। सुरक्षित रहें।

✍️🙏🏻

*अपराजेय*

"मैं तुम्हें दिखता हूँ?"
उसने पूछा...,
"नहीं..."
मैंने कहा...,
"फिर तुम
मुझसे लड़ोगे कैसे..?"
"...मेरा हौसला
तुम्हें दिखता है?"
मैंने पूछा...,
"नहीं..."
" फिर तुम
मुझसे बचोगे कैसे..?"
ठोंकता है ताल मनोबल
संकट भागने को
विवश होता है,
शत्रु नहीं
शत्रु का भय
अदृश्य होता है!

संजय भारद्धाज
9890122603
writersanjay@gmail.com


सुबह 11 बजे,13.5.2020

रविवार, 10 मई 2020

बोधि


🌱
*बोधि*

काँक्रीट की धरती में
दीवार के कोनों और
पाइपों के नीचे
पानी-माटी के
नितांत अभाव में
फूटती हैं कोंपले
पीपल और बरगद की,
विसंगति और
विपरीतता
बोधि संभावना की  
अनिवार्य शर्त होती हैं।

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(संध्या 5: 56 बजे, 11 अक्टूबर 2016)

# कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें।
🙏🏻✍️

शनिवार, 9 मई 2020

चुप्पियाँ-5


🙏🏻📚

*चुप्पियाँ-5*

तुम्हारी चुप्पी मूल्यवान है,
जितना चुप रहते हो
उतना मूल्य बढ़ता है,
वैसे तुम्हारी चुप्पी का मूल्य
कहाँ  तक पहुँचा?
...और बढ़ेगा क्या..?
मैं फिर चुप लगा गया..!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(1.9.18, रात 11:40 बजे)

( *'चुप्पियाँ'* कविता संग्रह से)

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।
✍️🙏🏻

शुक्रवार, 8 मई 2020

निठल्ला चिंतन


🙏🏻📚

*निठल्ला चिंतन-*

हर मनुष्य को चाहे वह कितना ही आलसी क्यों न हो,  शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक प्रक्रियाओं द्वारा 24x7 कार्यरत रहना पड़ता है। जब हम 'कुछ नहीं' करना चाहते तो वास्तव में क्या करना चाहते हैं? अपने शून्य में उपजे अपने 'कुछ नहीं' में छिपी संभावना को खुद ही पढ़ना होता है। जिस किसीने इस 'कुछ नहीं' को पढ़ और समझ लिया, यकीन मानना, वह जीवन में 'बहुत कुछ' करने की डगर पर निकल गया।

-संजय भारद्वाज
9890122603

writersanjay@gmail.com

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।
🙏🏻✍️

गुरुवार, 7 मई 2020

चुप्पियाँ-4


🌷📚

*चुप्पियाँ-4*

जो मैंने कहा नहीं,
जो मैंने लिखा नहीं,
उसकी समीक्षाएँ
पढ़कर तुष्ट हूँ,
अपनी चुप्पी की
बहुमुखी क्षमता पर
मंत्रमुग्ध हूँ...!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(1.9.18 रात्रि 11:37 बजे )

( कविता संग्रह *चुप्पियाँ* से।)

# घर में रहें। स्वस्थ रहें।
🙏🏻✍️

चुप्पियाँँ- 3



🌻📚
कुछ मित्रों का सुझाव था कि *चुप्पियाँ* शृंखला के अंतर्गत एक दिन एक ही कविता दूँ। उनके सुझाव को शिरोधार्य करते हुए आज से एक ही 
कविता साझा करूँगा।

*चुप्पियाँ- 3*

'मैं और
मेरी चुप्पी',
युग-युगांतर से
रच रहा हूँ
बस यही
एक महाकाव्य,
जाने क्या है कि
सर्ग समाप्त ही
नहीं होते...!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com 

(1.9.18, रात 11:31 बजे)

#  घर में रहें, सुरक्षित रहें।

🙏🏻✍️

मंगलवार, 5 मई 2020

चुप्पियाँ- 1 और 2


🌷📚

पुनर्पाठ-

*चुप्पियाँ*

दस घंटे, चुप्पी और एक लघु कविता संग्रह का जन्म-
घटना 2018 की जन्माष्टमी की है। उस दिन मैंने लिखा,
"जन्माष्टमी का मंगल पर्व और माँ शारदा की अनुकंपा का दुग्ध-शर्करा योग आज जीवन में उतरा। कल रात लगभग 9 बजे 'चुप्पी' पर एक कविता ने जन्म लिया। फिर देर रात तक इसी विषय पर कुछ और कविताएँ भी जन्मीं। सुबह जगा तो इसी विषय की कविताओं के साथ। दोपहर तक कविताएँ निरंतर दस्तक देती रहीं, कागज़ पर जगह बनाती रहीं। रात के लगभग अढ़ाई घंटे और आज के सात, कुल जमा दस घंटे कह लीजिए सृजन के। इन दस घंटों में 'चुप्पी' पर चौंतीस कविताएँ अवतरित हुईं। इससे पहले भी अनेक बार कई कविताओं की एक साथ आमद होती रही है। एक ही विषय पर अनेक कविताएँ एक साथ भी आती रही हैं। अलबत्ता एक विषय पर एक साथ इतनी कविताएँ पहली बार जन्मीं। एक लघु कविता संग्रह ही तैयार हो गया। ज्ञानदेवी माँ सरस्वती और सर्वकलाओं के अधिष्ठाता योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्रति नतमस्तक हूँ।"
'चुप्पियाँ' क्षितिज प्रकाशन के पास प्रकाशनार्थ है। लॉकडाउन खुलने के बाद संग्रह आएगा।
आज से प्रतिदिन इस विषय पर दो रचनाएँ साझा करूँगा।  समय निकाल कर  पढ़िए इन रचनाओं को और अपनी राय अवश्य दीजिए। 🙏🏻

*चुप्पियाँ-1*
वे निरंतर
कोंच रहे हैं मुझे,
......लिखो!
मैं चुप हो गया हूँ..,
अपनी सुविधा
में ढालकर,
मेरे लेखन की
शक्ल देकर,
अब बाज़ार में
चस्पा की जा रही है
मेरी चुप्पी..,
बाज़ार में मची धूम पर
क्या कहूँ दोस्तो,
मैं सचमुच चुप हूँ!

(1.9.18, रात 8.59 बजे)

*चुप्पियाँ -2*
मेरे भीतर जम रही हैं
चुप्पी की परतें,
मेरे भीतर बन रही है
एक मोटी-सी चादर,
मैं मुटा रहा हूँ...,
आलोचक इसे
खाल का मोटा होना
कह सकते हैं..,
कुछ अवसरसाधु
इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं,
मैं चुप हूँ, डरता हूँ
कहीं पिघल न जाए चुप्पी
इसके लावे की जद में
आ न जाएँ सारे आलोचक,
सारे अवसरसाधु,
विनाश की कीमत पर
सृजन नहीं चाहता मैं!
संजय भारद्वाज
(1.9.18, रात 9:56 बजे)

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।
🙏🏻✍️

सोमवार, 4 मई 2020

पाखंड

*पाखंड*

बित्ता भर करता हूँ
गज भर बताता हूँ
नगण्य का अगणित करता हूँ
जब कभी मैं दाता होता हूँ..,
सूत्र उलट देता हूँ
बेशुमार हथियाता हूँ
कमी का रोना रोता हूँ
जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,
धर्म, नैतिकता, सदाचार
सारा कुछ दुय्यम बना रहा
आदमी का मुखौटा जड़े  पाखंड
दुनिया में अव्वल बना रहा..!

संजय भारद्वाज
9890122603


# नियमों का पालन करें। स्वस्थ एवं सुरक्षित रहें।🙏🏻

रविवार, 3 मई 2020

विशेषज्ञ

🙏🏻📚

*विशेषज्ञ*

विशेषज्ञ हूँ,

तीन भुजाएँ खींचता हूँ

तीन कोण बनाता हूँ,

तब त्रिभुज नाम दे पाता हूँ..,

तुम क्या करते हो कविवर?

विशेष कुछ नहीं

बस, त्रिभुज में

चौथा कोण देख पाता हूँ..!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

अपराह्न 1:15 बजे
2.5.2020

🙏🏻✍️

शनिवार, 2 मई 2020

सत्य


🌱

*सत्य*

परम सत्य,
शाश्वत सत्य,
अंतिम सत्य,
अपना पांडित्य
अपने को छलता रहा,
बिना किसी विशेषण के
सत्य अपनी राह चलता रहा।

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

रात्रि 1.43 बजे, 29.4.2020

# कृपया घर में रहें। सुरक्षित रहें।

✍️🙏🏻

शुक्रवार, 1 मई 2020

निश्चय


📚🌷

*निश्चय*

उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।

जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं  दर्शक यहीं पर मैदान मानो निष्प्राण है।

एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने‌ लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग‌ वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।

दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

अपराह्न 12:55 बजे, 30.4.2020

(आगामी लघुकथा संग्रह से।)

# वैश्विक महामारी से लड़ने में सरकार का साथ दें। घर में रहें। आपका दिन सार्थक हो।

🙏🏻✍️

सूत्र


*सूत्र*

उदासीन हो

उदासीनता बयान करो,

इस विषय पर

एक रचना हो सकती है,

कुछ नहीं लिखता

यह सोच कर, जो

सूत्र, सूक्ति ना दे पाठक को

भला कविता कैसे हो सकती है?

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

प्रातः 10:19 बजे,
19 अप्रैल 2020

# घर में रहें। सुरक्षित व स्वस्थ रहें।