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*संजय उवाच*
*सन्मति*
यात्रा पर हूँ। एक भिक्षुक भजन गा रहा है, 'रघुपति राघव राजाराम.....सबको सम्पत्ति दे भगवान।'
संभवतः यह उसका भाषाई अज्ञान है। अज्ञान से विज्ञान पर चलें। विज्ञान कहता है कि सजीवों में वातावरण के साथ अनुकूलन या तालमेल बिठाने की स्वाभाविक क्षमता होती है।
इस क्षमता के चलते स्थूल शरीर का भाव सूक्ष्म तक पहुँचता है। जो वाह्यजगत में उपजता है, उसका प्रतिबिंब अंतर्जगत में दिखता है।
आज वाह्यजगत भौतिकता को 'त्वमेव माता, च पिता त्वमेव' मानने की मुनादी कर चुका। संभव है कि इसके साथ मानसिक अनुकूलन बिठाने की जुगत में अंतर्जगत ने 'सन्मति' को 'सम्पत्ति' कर दिया हो।
क्या हम सब भी 'सन्मति' से 'सम्पत्ति' की यात्रा पर नहीं हैं? सन्मति के लोप और सम्पत्ति के लोभ का क्या कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बंध है? इनके अंतर्सम्बंधों की पड़ताल शोधार्थियों को संभावनाओं के अगणित आयाम दे सकती हैं।
*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
मंगलवार 30 मई 2017, प्रात: 8:35 बजे
# दो ग़ज़ की दूरी
है बहुत ज़रूरी
🙏🙏✍️
बुधवार, 10 जून 2020
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