*संजय उवाच*
*लॉकडाउन* 🔏
ढाई महीने हो गए। लॉकडाउन चल रहा है। घर से बाहर ही नहीं निकले। किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए नहीं। न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।. ..पचास साल की ज़िंदगी बीत गई। कभी इस तरह का वक्त नहीं भोगा। यह भी कोई जीवन है? लगता है जैसे पागल हो जाऊँगा।
बात तो सही कह रहे हो तुम।...सुनो, एक बात बताना। घर में कोई बुज़ुर्ग है? याद करो, कितने महीने या साल हो गए उन्हें घर से बाहर निकले? किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए? न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।.... उन्हें भी लगता होगा कि यह भी कोई जीवन है? उन्हें भी लगता होगा जैसे पागल ही हो जाएँगे।
...लेकिन उनकी उम्र हो गई है। जाने की बेला है।... तुम्हें कैसे पता कि उनके जाने की बेला है। हो सकता है कि उनके पास पाँच साल बचे हों और तुम्हारे पास केवल दो साल।...बड़ी उम्र में शारीरिक गतिविधियों की कुछ सीमाएँ हो सकती हैं पर इनके चलते मृत्यु से पहले कोई जीना छोड़ दे क्या?
वे अनंत समय से लॉकडाउन में हैं। उन्हें ले जाओ बाहर, जीने दो उन्हें।...सुनो, यह चैरिटी नहीं है, तुम्हारा प्राकृतिक कर्तव्य है। उनके प्रति दृष्टिकोण बदलो। उनके लिए न सही, अपने स्वार्थ के लिए बदलो।
जीवनचक्र हरेक को धूप, छाँव, बारिश सब दिखाता है। स्मरण रहे, घात लगाकर बैठा जीवन का यह लॉकडाउन धीरे-धीरे तुम्हारी ओर भी बढ़ रहा है।
संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com
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प्रात: 4:35 बजे, 6.6.2020
(चित्र हेल्प एज इंटरनेशनल के सौजन्य से)
# सजग रहें, स्वस्थ रहें।
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