सोमवार, 22 जून 2020

संजय


...✍️

*संजय*

दिव्य दृष्टि की
विकरालता का भक्ष्य हूँ,
शब्दांकित करने
अपने समय को विवश हूँ,
भूत और भविष्य
मेरी पुतलियों में
पढ़ने आता है काल,
वर्तमान परिदृश्य हूँ,
वरद अवध्य हूँ,
कालातीत अभिशप्त हूँ!

*संजय भारद्वाज*

(18.5.2018, अपराह्न 3:50 बजे)

# आपका दिन सार्थक हो।
🙏🏻

विश्वास


*विश्वास*

रोज रात
सो जाता हूँ
इस विश्वास से कि
सुबह उठ जाऊँगा,
दर्शन कहता है-
साँसें बाकी हैं
तोे उठ पाता हूँ,
मैं सोचता हूँ-
विश्वास बाकी है
सो उठ जाता हूँ..!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(बुधवार 15 जून 2016, रात्रि 12:10 बजे)

# सजग रहें। स्वस्थ रहें।
🙏🏻✍️

सबकुछ


✍️...

*सबकुछ*

कुछ मैं,
कुछ मेरे शब्द,
सबकुछ की परिधि
कितनी छोटी होती है!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
प्रात 6:29 बजे, 7.7.2017

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।
🙏🏻

सत्य


*सत्य*

इसका सत्य
उसका सत्य,
मेरा सत्य
तेरा सत्य,
क्या सत्य सापेक्ष होता है?
अपनी सुविधा
अपनी परिभाषा,
अपनी समझ
अपना प्रमाण,
दृष्टि सापेक्ष होती है,
साधो! सत्य निरपेक्ष होता है!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

रात्रि 12:27 बजे, 16.6.19

आपका दिन सार्थक हो।
🙏🏻✍️

बुधवार, 17 जून 2020

सिंफनी


💦
*सिंफनी*

उठना चाहता है
लहर की तरह,
उठ पाता है
बुलबुले की तरह,
समय, प्रयत्न
और भाग्य की सिंफनी
सफलता तय करती हैं,
स्वप्न और सामर्थ्य
के बीच की दूरी
उफ़ कितनी खीझ
उत्पन्न करती है!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
( मंगलवार, 7 जून 2016, प्रातः 6:51)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।
✍️🙏🏻

मंगलवार, 16 जून 2020

विकल्प



🌻🍁

*विकल्प*

यात्रा में संचित
होते जाते हैं शून्य,
कभी छोटे, कभी विशाल,
कभी स्मित, कभी विकराल..,
विकल्प लागू होते हैं
सिक्के के दो पहलू होते हैं-
सारे शून्य मिलकर
ब्लैकहोल हो जाएँ
और गड़प जाएँ अस्तित्व
या मथे जा सकें
सभी निर्वात एकसाथ
पाये गर्भाधान नव कल्पित,
स्मरण रहे-
शून्य मथने से ही
उमगा था ब्रह्मांड
और सिरजा था
ब्रह्मा का अस्तित्व,
आदि या इति
स्रष्टा या सृष्टि
अपना निर्णय, अपने हाथ
अपना अस्तित्व, अपने साथ,
समझ रहे हो न मनुज..!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

( प्रात: 8.44 बजे, 12 जून 2019)

हरेक के भीतर बसे ब्रह्मा को नमन। आपका दिन सार्थक हो।
✍🌻🙏

सोमवार, 15 जून 2020

साक्षात्कार


🕉️ *संजय उवाच* 🕉️

*साक्षात्कार*
शाम के घिरते धुँधलके में बालकनी से सड़क की दूसरी ओर का दृश्य निहार रहा हूँ। काफी ऊँचाई पर सुदूर आकाश में दो पंछी पंख फैलाये, धीमी गति से उड़ते दिख रहे हैं। एक धीरे-धीरे नीचे की ओर आ रहा है। नीचे आने की क्रिया में पेड़ के पीछे की ओर जाकर विलुप्त हो गया। संभवत: कोई घोंसला उसकी प्रतीक्षा में है। दूसरा दूर और दूर जा रहा है, निरंतर आकाश की ओर। थोड़े समय बाद आँखों को केवल आकाश दिख रहा है।
जीवन भी कुछ ऐसा ही है। घोंसला मिलना, जगत मिलना। जगत मिलना, जन्म पाना।आकाश में ओझल होना, प्रयाण पर निकलना। प्रयाण पर निकलना, काल के गाल में समाना।

प्रकृति को निहारो, हर क्षण जन्म है। प्रकृति को निहारो, हर क्षण मरण है। प्रकृति है सो पंचमहाभूत हैं। पंचमहाभूत हैं सो जन्म है। प्रकृति है सो पंचतत्वों में विलीन होना है, पंचतत्वों में विलीन होना है सो मरण है। प्रकृति है सो पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस का पान है। जीवनरस का पान है सो जीवन का वरदान है। जन्म का पथ है प्रकृति, जीवन का रथ है प्रकृति, मृत्यु का सत्य है प्रकृति।

प्रकृति जन्म, परण, मरण है। जन्म, परण, मरण, जीव की गति का अलग-अलग भेष हैं।जन्म, परण, मरण ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश,त्रिदेव हैं। प्रकृति त्रिदेव है। सहजता से त्रिदेव के साक्षात दर्शन कर सकते हो।

साधो! कब करोगे दर्शन?

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

संध्या 7:28, 13.6.20

आपका दिन सार्थक हो।
✍️🙏🏻

शिलालेख


🌻

*शिलालेख*

अतीत हो रही हैं
तुम्हारी कविताएँ
बिना किसी चर्चा के,
मैं आश्वस्ति से
हँस पड़ा..,
शिलालेख,
एक दिन में तो
नहीं बना करते!

संजय भारद्वाज

(11 जून, 2016 संध्या 5:04 बजे)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।
✍️🙏🏻

रविवार, 14 जून 2020


😷 *उच्चारित शब्दों को वापस लेने का कोई माध्यम होता तो आदमी कितने शब्द वापस लेता?*
*शब्दवापसी  की इस परीक्षा में किस आयु में कहे हुए शब्द टॉप करते?*

आपका उत्तर अध्ययन और अनुसंधान के लिए महत्वपूर्ण डेटा उपलब्ध कराने में सहायक होगा।
विचार कीजिएगा, उत्तर अवश्य दीजिएगा। तभी चिंतन निठल्ला से क्रियावान में बदल सकेगा।   

@ संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com
(10/6 /18, संध्या 7: 11 बजे)

*# निठल्ला चिंतन*
🙏🏻✍️🙏🏻


🌻

*शिलालेख*

अतीत हो रही हैं
तुम्हारी कविताएँ
बिना किसी चर्चा के,
मैं आश्वस्ति से
हँस पड़ा..,
शिलालेख,
एक दिन में तो
नहीं बना करते!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(11 जून, 2016 संध्या 5:04 बजे)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।

✍️🙏🏻

शुक्रवार, 12 जून 2020

लॉकडाउन


*संजय उवाच*

*लॉकडाउन* 🔏

ढाई महीने हो गए। लॉकडाउन चल रहा है। घर से बाहर ही नहीं निकले। किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए नहीं। न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।. ..पचास साल की ज़िंदगी बीत गई।  कभी इस तरह का वक्त नहीं भोगा। यह भी कोई जीवन है? लगता है जैसे पागल हो जाऊँगा।

बात तो सही कह रहे हो तुम।...सुनो, एक बात बताना। घर में कोई बुज़ुर्ग है? याद करो, कितने महीने या साल हो गए उन्हें घर से बाहर निकले? किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए? न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।.... उन्हें भी लगता होगा कि  यह भी कोई जीवन है? उन्हें भी लगता होगा जैसे पागल ही हो जाएँगे।
...लेकिन उनकी उम्र हो गई है। जाने की बेला है।... तुम्हें कैसे पता कि उनके जाने की बेला है। हो सकता है कि उनके पास पाँच साल बचे हों और तुम्हारे पास केवल दो साल।...बड़ी उम्र में शारीरिक गतिविधियों की कुछ सीमाएँ हो सकती हैं पर इनके चलते मृत्यु से पहले कोई जीना छोड़ दे क्या?

वे अनंत समय से लॉकडाउन में हैं। उन्हें ले जाओ बाहर, जीने दो उन्हें।...सुनो, यह चैरिटी नहीं है, तुम्हारा प्राकृतिक कर्तव्य है। उनके प्रति दृष्टिकोण बदलो। उनके लिए न सही, अपने स्वार्थ के लिए बदलो।

जीवनचक्र हरेक को धूप, छाँव, बारिश सब दिखाता है। स्मरण रहे, घात लगाकर बैठा जीवन का यह लॉकडाउन धीरे-धीरे  तुम्हारी ओर भी बढ़ रहा है।

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

प्रात: 4:35 बजे, 6.6.2020
(चित्र हेल्प एज इंटरनेशनल के सौजन्य से)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।
🙏🏻✍️

गुरुवार, 11 जून 2020

त्रिलोक


*त्रिलोक*

सुर,
असुर,
भूसुर,
एक मूल शब्द,
दो उपसर्ग,
मिलकर
तीन लोक रचते हैं,
सुर दिखने की चाह
असुर होने की राह,
भूसुर में
तीन लोक बसते हैं।

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(प्रातः 6:24 बजे, 25.5.19)
# सजग रहें, सतर्क रहें, स्वस्थ रहें।

✍️🙏🏻

बुधवार, 10 जून 2020

फेरा


🌗 *फेरा*

अथाह अंधेरा
एकाएक प्रदीप्त उजाला
मानो हजारों
लट्टू चस गए हों,
नवजात का आना
रोना-मचलना
थपकियों से बहलना,
शनै:-शनै:
भाषा समझना,
तुतलाना
बातें मनवाना
हठी होते जाना,
उच्चारण में
आती प्रवीणता,
शब्द समझकर
उन्हें जीने की लीनता,
चरैवेति-चरैवेति...,
यात्रा का
चरम आना
आदमी का हठी
होते जाना,
येन-केन प्रकारेण
अपनी बातें मनवाना,
शब्दों पर पकड़
खोते जाना,
प्रवीण रहा जो कभी
अब उसका तुतलाना,
रोना-मचलना
किसी तरह
न बहलना,
वर्तमान भूलना
पर बचपन उगलना,
एकाएक वैसा ही
प्रदीप्त उजाला
मानो हजारों
लट्टू चस गए हों
फिर अथाह अंधेरा..,
जीवन को फेरा
यों ही नहीं
कहा गया मित्रो!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

प्रात: 10:10 बजे
शनिवार, 26.5.18

# सजग रहें, सतर्क रहें।
🌞✍️

चुप्पियाँ-13


*चुप्पियाँ-13*

चुपचाप उतरता रहा
दुनिया का चुप
मेरे भीतर..,
मेरी कलम चुपचाप
चुप्पी लिखती रही।

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(प्रातः 9:26 बजे, 2.9.18)

( कवितासंग्रह *चुप्पियाँ* से।)
सजग रहें, स्वस्थ रहें।

🙏🏻✍️

ज्योतिर्गमय


*ज्योतिर्गमय*

अथाह, असीम
अथक अंधेरा,
द्वादशपक्षीय
रात का डेरा,
ध्रुवीय बिंदु
सच को जानते हैं
चाँद को रात का
पहरेदार मानते हैं,
बात को समझा करो
पहरेदार से डरा करो,
पर इस पहरेदार की
टकटकी ही तो
मेरे पास है,
चाँद है सो
सूरज के लौटने
की आस है,
अवधि थोड़ी हो
अवधि अधिक हो,
सूरज की राह देखते
बीत जाती है रात,
अंधेरे के गर्भ में
प्रकाश को पंख फूटते हैं,
तमस के पैरोकार,
सुनो, रात काटना
इसे ही तो कहते हैं..!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

(रात्रि 3:31 बजे, 6.6.2020)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।
( ध्रुवीय बिंदु पर रात और दिन लगभग छह-छह माह के होते हैं।)

वह लिखता रहा..लघुकथा


🌻लघुकथा🌻

*वह लिखता रहा..*

'सुनो, रेकॉर्डतोड़ लाइक्स मिलें, इसके लिए क्या लिखा जाना चाहिए?'
......वह लिखता रहा।

'अश्लील और विवादास्पद लिखकर चर्चित होने का फॉर्मूला कॉमन हो चुका। रातोंरात (बद)नाम होने के लिए क्या लिखना चाहिए?'
.....वह लिखता रहा।

'अमां क्लासिक और स्तरीय लेखन से किसीका पेट भरा है आज तक? तुम तो यह बताओ कि पुरस्कार पाने के लिए क्या लिखना चाहिए?'
.....वह लिखता रहा।

'चलो छोड़ो, पुरस्कार न सही, यही बता दो कि कोई सूखा सम्मान पाने की जुगत के लिए क्या लिखना चाहिए?'
.....वह लिखता रहा।

वह लिखता रहा हर साँस के साथ, वह लिखता रहा हर उच्छवास के साथ। उसने न लाइक्स के लिए लिखा, न चर्चित होने के लिए लिखा। कलम न पुरस्कार के लिए उठी, न सम्मान की जुगत में झुकी। उसने न धर्म के लिए लिखा, न अर्थ के लिए, न काम के लिए, न मोक्ष के लिए।

उसका लिखना, उसका जीना था। उसका जीना, उसका लिखना था। वह जीता रहा, वह लिखता रहा..!

संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com

( लघुकथासंग्रह  *मोक्ष और अन्य लघुकथाएँ* से )

(रात्रि 11.17 बजे, 29 मई 2019)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें
🙏🏻✍️

शोध


📚🌷

*शोध*

मैं जो हूँ
मैं जो नहीं हूँ,
इस होने और
न होने के बीच
मैं कहीं हूँ....!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

(रात्रि 9: 02, दि. 3.10.15)

# दो गज़ की दूरी
   है बहुत ज़रूरी।

चिरंजीव


🌳

*चिरंजीव*

लपेटा जा रहा है
कच्चा सूत
विशाल बरगद
के चारों ओर,
आयु बढ़ाने की
मनौती से बनी
यह रक्षापंक्ति
अपनी सदाहरी
सफलता की गाथा
सप्रमाण कहती आई है,
कच्चे धागों से बनी
सुहागिन वैक्सिन
अनंतकाल से
बरगदों को
चिरंजीव रखती आई है!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

प्रात: 7:54 बजे,  13.4.2020

# दो गज़ की दूरी
   है बहुत ज़रूरी।

🙏🏻✍️

पर्यावरण दिवस की दस्तक


🌱🙏🏻🌳

मित्रो! आज पर्यावरण दिवस है। आज अपना एक  लघु आलेख साझा कर रहा हूँ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस आलेख को आप सबका भरपूर नेह मिला है।
  
*पर्यावरण दिवस की दस्तक-*

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

-संजय भारद्वाज
9890122603

( 30 मई 2017 को  मुंबई से पुणे लौटते हुए लिखी पोस्ट। )

🙏🏻🌿✍️

चुप्पियाँ-12


🌿🙏🏻

*चुप्पियाँ*-12

मेरे शब्द
चुराने आए थे वे,
चुप्पी की मेरी
अकूत संपदा देखकर
मुँह खुला का खुला
रह गया.....,
समर्पण में
बदल गया आक्रमण,
मेरी चुप्पी में
कुछ और पात्रों का
समावेश हो गया!

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
(प्रातः 8:07 बजे, 2.9.18)

(कविता-संग्रह *चुप्पियाँ* से)

# दो गज़ की दूरी
   है बहुत ज़रूरी।

🙏🏻✍️

नेह


💥🌿

*नेह*

मन विदीर्ण हो जाता है
जब कोई
कह-बोल कर
औपचारिक रूप से
बताता-जताता है,
रिश्तों को शाब्दिक
लिबास पहनाता है,
जानता हूँ,
नेह की छटाओं में
होती नहीं एकरसता है
पर मेरी माँ ने कभी नहीं कहा
‘तू मेरे प्राणों में बसता है।’

-संजय भारद्वाज
(संध्या 7:35 बजे, शुक्रवार, 25.5.18)

# दो गज़ की दूरी
   है बहुत ज़रूरी।
🙏🏻✍️

ऊँचाई


📚🌻

*ऊँचाई*

बहुमंजिला इमारत की
सबसे ऊँची मंजिल पर
खड़ा रहता है एक घर,
गर्मियों में इस घर की छत
देर रात तक तपती है,
ठंड में सर्द पड़ी छत
दोपहर तक ठिठुरती है,
ज़िंदगी हर बात की कीमत
ज़रूरत से ज्यादा वसूलती है,
छत बनने वालों को ऊँचाई
अनायास नहीं मिलती है..!

*संजय भारद्वाज*
(रात्रि 3:29 बजे, 20 मई 2019)

# दो ग़ज़ की दूरी
   है बहुत ज़रूरी।

🙏🏻✍️

सन्मति

📚💥

*संजय उवाच*

*सन्मति*

यात्रा पर हूँ। एक भिक्षुक भजन गा रहा है, 'रघुपति राघव राजाराम.....सबको सम्पत्ति दे भगवान।'

संभवतः यह उसका भाषाई अज्ञान है। अज्ञान से विज्ञान पर चलें। विज्ञान कहता है कि सजीवों में वातावरण के साथ अनुकूलन या तालमेल बिठाने की स्वाभाविक क्षमता होती है।

इस क्षमता के चलते स्थूल शरीर का भाव सूक्ष्म तक पहुँचता है। जो वाह्यजगत में उपजता है, उसका प्रतिबिंब अंतर्जगत में दिखता है।

आज वाह्यजगत भौतिकता को 'त्वमेव माता, च पिता त्वमेव' मानने की मुनादी कर चुका। संभव है कि इसके साथ मानसिक अनुकूलन बिठाने की जुगत में अंतर्जगत ने 'सन्मति' को 'सम्पत्ति' कर दिया हो।

क्या हम सब भी 'सन्मति' से 'सम्पत्ति' की यात्रा पर नहीं हैं? सन्मति के लोप और सम्पत्ति के लोभ का क्या कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बंध है? इनके अंतर्सम्बंधों की  पड़ताल शोधार्थियों को संभावनाओं के अगणित आयाम दे सकती हैं।

*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com

मंगलवार 30 मई 2017, प्रात: 8:35 बजे

 # दो ग़ज़ की दूरी
     है बहुत ज़रूरी

🙏🙏✍️