आज अलसुबह आँखें भीतर समायी इस कविता को पढ़ते हुए ही खुली।
मित्रों के साथ बॉंट रहा हूँ।
रेटीना
फिर चमक उठी
किरणें आँखों में,
अक्षर-अक्षर पढ़ता रहा
नख-शिख वर्णन करता रहा।
किसीने पूछा-
बाबा! तुम्हारी आँखें
देख नहीं पाती हैं
फिर कैसे
सटीक चित्र बताती हैं?
मेरे होंठ मुस्करा भर दिए,
अनुभव का अपना
अलग रेटीना होता है,
बॉंचने और पढ़ने में
यही फर्क होता है।
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