गुरुवार, 28 जुलाई 2016

कल रात्रि भ्रमण में अलग-अलग विषयों पर तीन कविताएँ उपजीं। मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ।

1.
फुटपाथ पर डेरा लगाए
वह बुजुर्ग भिखारी
रात के इस प्रहर में भी
अपनी अनामिका में पहनी
भाग्य पलटाने की
उस चमकती
नकलीअँगूठी को
हसरत से निहारता है,
ये मरी आशा
आदमी को
किन-किन
हालातों में
जिलाए रखती है!

2.
मेरे प्रति
अपार प्रशंसा से भरे
उनके शब्दों से
ग्लानि से झुक जाती हैं
मेरी आँखें,
मन के दर्पण में
मैं देखता हूँ
अपने सारे रंग-बदरंग
शर्मिंदगी से भर उठता हूँ,
फिर सोचता हूँ
प्रशंसा की यह शब्दावली ही
राह दिखलाती है
आत्म विश्लेषण की;
अपने छोटेपन के
मनन-मंथन की,
करबद्ध अनुरोध है
तुम करते रहना
मेरी प्रशंसा,
इन शब्दों की बदौलत
शायद इतना कर सकूँ
मृत्यु से पहले
थोड़े समय
सच्चा, सादा,
ईमानदार मनुष्य होकर
जी सकूँ!

3.
शव को
जलाते हैं
दफनाते हैं
शोक, विलाप
रुदन, प्रलाप
अस्थियॉं, मॉंस
लकड़ियॉं, बॉंस
बंद मुट्‌ठी लिए
आदमी का आना
मुट्‌ठी भर होकर
आदमी का जाना,
सब देखते हैं
सब समझते हैं
निष्ठा से
अपना काम करते हैं
श्मशान के ये कर्मचारी
परायों की भीड़ में
अपनों से लगते हैं,
घर लौटकर
रोजाना की सारी भूमिकाएँ
आनंद से निभाते हैं
विवाह, उत्सव
पर्व, त्यौहार
सभी मनाते हैं
खाते हैं, पीते हैं
नाचते हैं, गाते हैं,
स्थितप्रज्ञता को भगवान
मोक्षद्वार घोषित करते हैं
धर्मशास्त्र संभवत:
ऐसे ही लोगों को
स्थितप्रज्ञ कहते हैं।

( सभी रचनाएँ गुरुवार दि. 28 जुलाई 2016, रात्रि भ्रमण 9:40से 9:45 के बीच)

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