रविवार, 2 नवंबर 2014

आज अलसुबह आँखें भीतर समायी इस कविता को पढ़ते हुए ही खुली। 
मित्रों के साथ बॉंट रहा हूँ।

रेटीना

फिर चमक उठी
 
किरणें आँखों में,

अक्षर-अक्षर पढ़ता रहा

नख-शिख वर्णन करता रहा।

किसीने पूछा-

बाबा! तुम्हारी आँखें 

देख नहीं पाती हैं

फिर कैसे 

सटीक चित्र बताती हैं?

मेरे होंठ मुस्करा भर दिए,

अनुभव का अपना

अलग रेटीना होता है,

बॉंचने और पढ़ने में

यही फर्क होता है।
कैद कर लिए मैंने

विकास की यात्रा के

बहुत से दृश्य

अपनी आँख में,

अब;

इनसे टपकेगा पानी

केवल उन्हीं बीजों पर


जो उगा सकें


हरे पौधे और हरी घास,


अपनी आँख को

फिर किसी विनाश का


साक्षी नहीं बना सकता मैं!