रविवार, 2 नवंबर 2014

आज अलसुबह आँखें भीतर समायी इस कविता को पढ़ते हुए ही खुली। 
मित्रों के साथ बॉंट रहा हूँ।

रेटीना

फिर चमक उठी
 
किरणें आँखों में,

अक्षर-अक्षर पढ़ता रहा

नख-शिख वर्णन करता रहा।

किसीने पूछा-

बाबा! तुम्हारी आँखें 

देख नहीं पाती हैं

फिर कैसे 

सटीक चित्र बताती हैं?

मेरे होंठ मुस्करा भर दिए,

अनुभव का अपना

अलग रेटीना होता है,

बॉंचने और पढ़ने में

यही फर्क होता है।
कैद कर लिए मैंने

विकास की यात्रा के

बहुत से दृश्य

अपनी आँख में,

अब;

इनसे टपकेगा पानी

केवल उन्हीं बीजों पर


जो उगा सकें


हरे पौधे और हरी घास,


अपनी आँख को

फिर किसी विनाश का


साक्षी नहीं बना सकता मैं!

रविवार, 19 अक्टूबर 2014

धरकर पहाड़,
जंगल और नदियॉं
आदमी खड़ा हो जाता
सारी दूरियॉं नापने,
आकाश का इंद्रधनुष
सुहाग के सिंदूर-सा
उतर आता जीवन के कैनवास पर
और माटी की सौंध बनकर
महकने लगती सॉंसें,
खोला करता खिड़कियॉं बादलों में
बलिष्ठ भुजाओं वाला आदमी
तांडव करती लहरों पर
अंगद के पॉंव-सा जमा रहता
मजबूत घुटनोंवाला आदमी,
आदमी ने काट दिए पहाड़
आदमी ने पाट दी घाटियॉं
आदमी ने नाले में बदल दी नदियॉं
आदमी ने कर दी ज़ंग के हवाले सारी खिड़कियॉं
बादल और लहरों के दृश्य
कब के हो चुके अदृश्य
अब,
अपना हारा हुआ अहंकार
कैनवास पर औंधे मुँह उँड़ेल रहा है
रंगों से निर्वासित आदमी,
रिरिया रहा है, घिसट रहा है
अभिशप्त है तिल-तिल घुटने के लिए
देखो ये टूटे घुटनोंवाला आदमी।