*दस घंटे, चुप्पी और एक लघु कविता संग्रह का जन्म-*
जन्माष्टमी का मंगल पर्व और माँ शारदा की अनुकंपा का दुग्ध-शर्करा योग कल जीवन में उतरा। परसों रात लगभग 9 बजे 'चुप्पी' पर एक कविता ने जन्म लिया। फिर देर रात तक इसी विषय पर कुछ और कविताएँ भी जन्मीं। कल सुबह जगा तो इसी विषय की कविताओं के साथ। दोपहर तक कविताएँ निरंतर दस्तक देती रहीं, कागज़ पर जगह बनाती रहीं। रात के लगभग अढ़ाई घंटे और दिन के सात, कुल जमा दस घंटे कह लीजिए सृजन के। इन दस घंटों में 'चुप्पी' पर चौंतीस कविताएँ अवतरित हुईं। इससे पहले भी अनेक बार कई कविताओं की एक साथ आमद होती रही है। एक ही विषय पर अनेक कविताएँ एक साथ भी आती रही हैं। अलबत्ता एक विषय पर एक साथ इतनी कविताएँ पहली बार जन्मीं। एक लघु कविता संग्रह ही तैयार हो गया। श्वेत पद्मासना ज्ञानदेवी माँ सरस्वती और सर्वकलाओं के अधिष्ठाता योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्रति नतमस्तक हूँ।
कविताएँ जिस गति से जन्मीं, उसी गति से प्रकाशनाधीन पुस्तकों की तुलना में इसे शीघ्रतिशीघ्र ले आने का मानस बना। सब ठीक रहा तो बहुत जल्द 'चुप्पियाँ' आपके हाथ में पुस्तक के रूप में भी होगी।
तब तक समय निकाल कर पढ़िए इन रचनाओं को और अपनी राय दीजिए।
संजय भारद्वाज
*चुप्पियाँ*
( लघु कविता संग्रह)
1)
वे निरंतर कोंच रहे हैं मुझे-
......लिखो!
मैं चुप हो गया हूँ..,
उनकी सुविधा
में ढालकर,
मेरे लेखन की
शक्ल देकर
अब बाज़ार में
चस्पा की जा रही है
मेरी चुप्पी..,
बाज़ार में मची धूम पर
क्या कहूँ दोस्तो,
मैं सचमुच चुप हो गया हूँ।
( 1.9.18, रात्रि 8:37 बजे)
2)
मेरे भीतर
जम रही हैं
चुप्पी की परतें
मेरे भीतर
तन रही है
मोटी-सी चादर,
मैं मुटा रहा हूँ...,
आलोचक
इसे खाल का मोटा होना
कह सकते हैं,
कुछ अवसरसाधु
इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं
प्रत्यक्ष मित्र
परोक्ष शत्रु
सभी तीर चला रहे हैं,
मैं चुप हूँ , डरता हूँ
कहीं पिघल न जाए मेरी चुप्पी
और इसके लावे की जद में
आ न जाएँ
आलोचक, अवसरसाधु,
आत्मकेंद्रित मित्र
और शत्रुओं के व्यवहार,
विनाश की कीमत पर
सृजन नहीं चाहता मैं!
( रात 9:56 बजे)
3)
'मैं और मेरी चुप्पी'
युग-यगांतर से रच रहा हूँ
बस यही एक महाकाव्य,
जाने क्या है कि
सर्ग समाप्त ही
नहीं होते!
(रात 11:31 बजे)
4)
जो मैंने कहा नहीं
जो मैंने लिखा नहीं
उसकी समीक्षाएँ
पढ़कर तुष्ट हूँ
अपनी चुप्पी की
बहुमुखी क्षमता पर
मंत्रमुग्ध हूँ...!
(रात्रि11:37 बजे)
5)
तुम्हारी चुप्पी मूल्यवान है
जितना चुप रहते हो
उतना मूल्य बढ़ता है,
वैसे तुम्हारी चुप्पी का मूल्य
कहाँ तक पहुँचा?
...और बढ़ेगा क्या..?
मैं फिर चुप लगा गया।
( रात 11:40 बजे)
6)
'चुप रहो'
क्रोध का पारावार
ज्यों-ज्यों बढ़ता है
अपने सिवा
हरेक से
चुप्पी की आशा करता है,
आवेग की
इकाई होती है चुप्पी!
( 2.9.18, प्रातः 6:51 बजे)
7)
कोलाहल
निपट पहली
संख्या हो
या असंख्येय
हो चुका हो,
कोलाहल
संख्यारेखा के
बाएँ हो या दायें हो,
हर बार
हर समय
कोलाहल की
परिणति
चुप्पी ही होती है,
चुप्पी शाश्वत है
शेष सब नश्वर!
(प्रातः 6:59 बजे)
8)
चुप रहो...
क्यों?
देर तक
तुम्हारी खामोशी
सुनना चाहता हूँ!
(प्रातः 6:52 बजे)
9)
किसी बात की
अति अच्छी नहीं होती
माँ कहती हैं..,
सोचता हूँ
क्रोध की अति
अपने साथ
दूसरे के लिए भी
घातक होती है,
पर चुप्पी की अति
मारकेश का
कारक होती है!
( प्रातः 7:28 बजे)
10)
पूर्ण से
पूर्ण जाने पर भी
पूर्ण ही शेष रहता है..,
चैनलों पर सुनता हूँ
प्रायोजित प्रवचन
चुप हो जाता हूँ..,
सारी चुप्पियाँ
समाप्त होने के बाद भी
बची रहती है चुप्पी,
पूर्णमदः ......
........पूर्णमेवावशिष्यते!
(प्रातः 7:49 बजे)
11)
मेरे शब्द
चुराने आये थे वे,
चुप्पी की मेरी
अकूत संपदा देखकर
मुँह खुला का खुला
रह गया,
मेरी चुप्पी के
वे भी पात्र हो गए!
(प्रातः 8:07 बजे)
12)
चुप्पी
निरंतर सिरजती है विचार
'सदा दूधो नहाओ, पूतो फलो'
का आशीर्वाद
केवल चुप्पी को ही
फलीभूत हुआ है!
( 8:11 बजे)
13)
तुम चुप रहो
तो मैं कुछ कहूँ..,
इसके बाद
वह निरंतर
बोलता रहा
मेरी चुप्पी पर..,
अपनी चुप्पी की
सदाहरी कोख पर
आश्चर्यचकित हूँ!
( प्रातः 8:23 बजे)
14)
मेरी चुप्पी
तुम्हारी चुप्पी
इसकी, उसकी
हम सबकी चुप्पी,
हवा को
मुट्ठी में कैद करने की
नादान युक्ति,
कोई कुछ कहता नहीं
अंधेरा घुप है,
सब चुप्पी लगा गये
और तो और
सर्वज्ञ भी चुप है।
( प्रातः 8:31 बजे)
15)
'चुपचाप रहो'
दो शब्दों का मेल
कहने वाले-सुनने वाले
के भीतर
मचा देता है
विचारों का कोलाहल!
(8:36 बजे)
16)
मेरे शब्दों की
बोलती चुप्पी पर
कुछ छात्र
अनुसंधान करना चाहते हैं,
अपनी चुप्पी की
मुखरता पर
नतमस्तक हूँ!
( प्रातः 8:52 बजे)
17)
क्या आजीवन
बनी रहेगी तुम्हारी चुप्पी?
प्रश्न की
संकीर्णता पर
मैं हँस पड़ा,
चुप्पी तो
मौत के बाद भी
मेरे साथ ही रहेगी!
(प्रातः 9:01 बजे)
18 )
शब्दों का सृजक
भला कोई
कैसे कहला सकता है?
शब्द
उधार के होते हैं
आदमी
चुप्पी ही रचता है।
(प्रातः 9:07 बजे)
19)
चुपचाप उतरता रहा
दुनिया का चुप
मेरे भीतर,
मेरी कलम चुपचाप
चुप्पी लिखती रही।
(प्रातः 9:26 बजे)
20)
तुम्हारी चुप्पी में
शब्दों की
गूँज होती है,
मैं निर्निमेष
देख रहा हूँ
बिलोने की ध्वनि में
अंतर्भूत
माखन की अनुगूँज!
( प्रातः 9:39 बजे)
21)
आदमी
बोलता रहा ताउम्र
दुनिया ने
अबोला कर लिया,
हमेशा के लिए
चुप हो गया आदमी
दुनिया आदमी पर
बतिया रही है!
(प्रातः 9:44 बजे)
22)
मेरी चुप्पी का
जवाब पूछने
आया था वह,
मेरी चुप्पी का
एन्सायक्लोपीडिया देखकर
चुप हो गया!
(प्रातः 9:45 बजे)
23)
आज फैसला
हो ही जाए
विस्तार का,
चलो
अदल-बदल लें
अपनी चुप्पी,
पर असीम को
सीमाबद्ध कैसे करेंगे?
( प्रातः 10:01 बजे)
24)
तुम्हारा चुप
मेरे चुप से
अलग है,
मुझे लगा
वह रक्त की लालिमा
और जल की प्रवहनीयता पर
प्रश्न उठा रहा है।
(प्रातः 10:03 बजे)
25)
सकार, नकार,
उपेक्षा, सत्कार,
शब्दों की भिन्न
अर्थावली होती है,
पर चुप्पी स्वीकृति का
लक्षण होती है।
(प्रातः 10:14 बजे)
26)
शोर से सख़्त चिढ़ है
वह चुप्पी चाहता है
फिर देखकर मरघट
बस्ती को चला आता है!
(प्रातः 10:28 बजे)
27)
उच्चरित शब्द
अभिदा है,
शब्द की
सीमाएँ हैं
संज्ञाएँ हैं
आशंकाएँ हैं,
चुप्पी
व्यंजना है,
चुप्पी की
दृष्टि है
सृष्टि है
संभावनाएँ हैं!
(प्रातः 10:44 बजे)
28)
प्रलोभनों का
जख़ीरा उतरा है
ख़रीद-फरोख़्त के लिए,
मेरी चुप्पी
माँ की ममता
सिद्ध हुई!
(प्रातः 10:47 बजे)
29)
चुप्पी के रंग
गिनते-गिनते
सोया था,
चुप्पी के रंग
गिनते-गिनते
उठा हूँ,
पलकों में
मुंदी हैं
सागर की लहरें
सूरज की किरणें,
देखता हूँ
मन की तरंगें
सृष्टि के रंग-बिरंगे,
कोई याद दिलाए
मैं गिनती
भूल गया हूँ मित्रो!
(प्रातः 11:37 बजे)
30)
कितने दिनों से
धधक रही थीं
चुप्पियाँ,
सारी की सारी
उँड़ेल दी एक साथ
खौलते पानी की तरह?
सुनो मित्र,
विनम्रता से कहता हूँ
मेरी चुप्पियाँ
महज खौलता पानी नहीं
बद्री विशाल में
माँ अलकनंदा की
हिमलहरियों के बीच
गर्म पानी का
छोटा- सा सोता है,
मेरे साथ
बद्रीधाम की यात्रा
पर चलो
फिर इसे
अनुभव करो..!
(प्रातः 11:58 बजे)
32)
-कुछ कहो
तुम्हारी चुप्पी
बरदाश्त नहीं होती,
मैंने कोरा कागज़
मोड़कर थमा दिया,
-पढ़ लो, सारा कुछ
इस पर लिख दिया है,
ज़िंदगी भी
एक करवट ले चुकी
उसका बाँचना
बदस्तूर जारी है,
सोचता हूँ
इतना ज़्यादा तो
नहीं लिखा था मैंने!
(अपराह्न 12:25 बजे)
33)
चुप्पी क्या रचते हो
मानो मेरा कोई हिस्सा
मेरे ही सामने रखते हो,
सुनो मित्र!
तुम स्वप्नवत लिखते हो,
आभार के लिए लेखनी उठाई
शब्दावली उभर आई,
भोगे हुए सत्य से
उपजती हैं चुप्पियाँ
पलकों पर ठिठकी
आशाओं की जननी हैं चुप्पियाँ,
इबारत पर दिखता है सपना
जबकि लिखी होती हैं चुप्पियाँ,
शायद सपनों का
पर्यायवाची होती हैं चुप्पियाँ।
(अपराह्न 1:05 बजे)
34)
चुप हो जाना चाहता हूँ
जाना ही इनकी नियति है
सो चुप्पियों को
विदा कहना चाहता हूँ,
पर जाने क्या हो गया है
वे निरंतर आ रही हैं
मायके आई बेटी की तरह
लगातार बतिया रही हैं,
भरी आँखों से
निहारता हूँ इनका चेहरा
क्या करुँ
इनका पिता जो ठहरा!
(1:16 बजे)
35)
....और इसी संदर्भ की एक पुरानी कविता भी याद आ गई-
ऐसा लबालब
क्यों भर दिया तूने,
बोलता हूँ तो
चर्चा होती है,
चुप रहता हूँ तो
और अधिक
चर्चा होती है!
संजय भारद्वाज, पुणे